Friday, December 16, 2016

काकोरी के अमर शहीद

मुल्ज़िम और मुलाज़िम...

विख्यात काकोरी केस के मुक़दमे में क्रांतिकारियों के खिलाफ पंडित जवाहरलाल नेहरू के सगे साले जगत नारायण मुल्ला सरकारी वकील थे। 'मुल्ला' उनका उपनाम था। बहस के दौरान उनकी जुबान से काकोरी के अभियुक्तों के लिए 'मुल्ज़िम' की बजाय 'मुलाज़िम' शब्द निकल गया।मुल्ज़िम अभियुक्त को कहते हैं और मुलाज़िम नौकर को। एक सरकारी नौकर का क्रांतिकारियों के लिए 'मुलाज़िम' शब्द कहना पंडित रामप्रसाद 'बिस्मिल' को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने भरी अदालत में मुल्ला से कहा-




'मुलाज़िम हमको मत कहिये बड़ा अफ़सोस होता है,
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ़ लाये हैं।
पलट देते हैं हम मौज़े हवादिस अपनी जुर्रत से
कि हमने आँधियों में भी च़राग अक्सर जलाये हैं ....

उस दिन तमाम साथियों ने वकील साहब के उर्दू ज्ञान का काफ़ी मज़ाक उड़ाया।
(मौजे हवादिस= समंदर में तूफ़ान के कारण उठने वाली ऊँची लहरें)

Tuesday, December 6, 2016

*गीत::*

हे जगत पिता जगदीश्वर
यह गुण अपने मे पाऊं
हिंदू के हित में जन्मु
हिंदू के हित मर जाऊँ

चाहे राणा सम मुझको
वन वन में भटकना
चाहे तज भोग रसीले
सुखी ही घास खिलाना
पर हिंदू का तन देना
मै भले नरक में जाऊं

हिंदू के हित में जन्मु
हिंदू के हित मर जाऊँ

चाहे गुरु अर्जुन के सम
अंग अंग नुचवाना
चाहे गुरु बंदा के सम
सिर आरे से चिरवाना
चाहे गुरु पुत्रों के सम
दीवालों में चुनवाना

चाहे कर वीर हकीकत
नित सूली पर लटकाना
पर नाथ अहिन्दू बनकर
मै नही जगत में आऊं

हिंद के हित में जन्मु
हिंदू के हित मर जाऊँ



अरुण गगन पर महा प्रगति का अब फिर मंगल गान उठा।
करवट बदली अंगड़ाई ली सोया हिन्दुस्थान उठा।।

सौरभ से भर गई दिशायें अब धरती मुसकाती है,
कण-कण गाता गीत गगन के सीमा अब दुहराती है।
मंगल-गान सुनाता सागर गीत दिशायें गाती हैं,
मुक्त पवन पर राष्ट्र-पताका लहर-लहर लहराती है।
तरूण रक्त फिर लगा खौलने हृदयों मे तूफान उठा,
करवट बदली अंगड़ाई ली सोया हिन्दुस्थान उठा।।1।।

रामेश्वर का जल अंजलि में काश्मीर की सुन्दरता,
कामरूप की धूल द्वारका की पावन प्यारी ममता।
बंग-देश की भक्ति-भावना महाराष्ट्र की तन्मयता,
शौर्य पंचनद का औ-राजस्थानी विश्व-विजय-क्षमता।
केन्द्रित कर निज प्रखर तेज को फिर  भारत बलवान उठा,
करवट बदली अंगड़ाई ली सोया हिन्दुस्थान उठा।।2।।

बिन्दु-बिन्दु जल मिल कर बनती प्रलयंकर सर की धारा,
कण-कण भू-रज मिल कर करती अंधकारमय जग सारा।
कोटि-कोटि हम उठें उठायें भारतीयता का नारा,
बड़े विश्व के बढ़ते कदमों ने फिर हमको ललकारा।
जगे देश के कण-कण से फिर  जन-जन का आह्वान उठा,
करवट बदली अंगड़ाई ली सोया हिन्दुस्थान उठा।।3।।

https://www.youtube.com/watch?v=CbAW4GmkeUQ
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ध्येय वाक्य :

राणा के उस भीषण प्रण को आज पुनः हम सब दोहराए !
त्यज देंगे सारा सुख वैभव जब तक माँ का कष्ट न जाए !!
क्या होगा माता के कारण अगर राष्ट्र के लिये मरेंगे !!
भूमि शयन घांसों की रोटी खाकर भी सब व्यथा हरेंगे !!
निश्चित होगी विजय सत्य की दुश्मन काँपेंगे थर थर थर !
--महाराणा प्रताप जयंति की हार्दिक शुभकामनायें

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उठा कदम बढ़ा कदम , कदम कदम बढाये जा !
कदम कदम पे दुश्मनो , के धड़ से सर उड़ाए जा !!

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शपथ लेकर पूर्वजों की , आशा हम पूरी करें
मस्त होकर कार्यरत हों घ्येय मय जीवन धरें

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अम्बर हिले धरा डोले , पर हम अपना पथ न छोडें
सागर सीमा भूले , पर हम अपना ध्येय न छोडें |
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ऊंच नीच भेद भूल , एक हम सभी रहे
सहज बंधुभाव हो , राग द्वेष न रहे |
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संघ कार्य आसान नहीं है , लेकिन डरना काम नहीं है
निशदिन कष्ट उठाना है , कार्य पूर्ति अब करनी है|

ये उथल-पुथल उत्ताल लहर पथ से न डिगाने पायेगी।
पतवार चलाते जायेंगे मंजिल आयेगी-आयेगी॥

लहरों की गिनती क्या करना कायर करते हैं करने दो।
तूफानों से सहमे जो हैं पल-पल मरते हैं मरने दो॥
चिर पावन नूतन बीज लिये मनु की नौका तिर जायेगी॥
पतवार चलाते जायेंगे ॥

अनगिन संकट जो झेल बढ़ा वह यान हमारा अनुपम है
नायक पर है विश्वास अटल दिल में बाहों में दमखम है
यह रैन-अंधेरी बीतेगी ऊषा जय-मुकुट चढ़ायेगी॥
पतवार चलाते जायेंगे ॥

विध्वंसों का ताण्डव फैला हम टिके सृजन के हेम -शिखर
हम मनु के पुत्र प्रतापी हैं वर्चस्वी धीरोदत्त प्रखर।
असुरों की कपट कुचाल कुटिल श्रध्दा सबको सुलझायेगी॥
पतवार चलाते जायेंगे ॥

इतिहास हमारा संबल है विज्ञान हमारा है भुजबल
गत वैभव का आदर्श आज कर देगा भावी भी उज्ज्वल।
नूतन निर्मिति की तृप्ति अमर फिर गीत विजय की गायेगी।
पतवार चलाते जायेंगे ॥

इस धरती में शक हूण मिटे गजनी गौरी अरु अब्दाली
पश्चिम की लहरें लौट गई ले ले अपनी झोली खाली।
पूँजीशाही बर्बरत सब ये धरती उदर समायेगी।
पतवार चलाते जायेंगे मंजिल आयेगी -आयेगी।

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कुटुंब में सब मिलकर रहना
हमारे पुरखों का कहना
सुखी परिवार होता है
सुखी संसार होता है

हमारी रीत है निराली
ऋषि मुनियों ने थी डाली
नहीं होता कोई खाली
सभी को काम होता है
कुटुंब में सब मिलकर रहना
हमारे पुरखों का कहना

सभी दुःख बाँट लेते है
सुखों में मिलजुल गाते है
ख़ुशी ख़ुशी घर में रहते है
सभी में प्यार होता है
कुटुंब में सब मिलकर रहना
हमारे पुरखों का कहना

मानते एक दूजे की बात
नहीं होता है कभी विवाद
करें आपस में सब संवाद
सभी का मान होता है
कुटुंब में सब मिलकर रहना
हमारे पुरखों का कहना

बड़ों से सीख लेते है
उन्ही से ज्ञान पाते है
तभी संस्कार आते है
जो सब के साथ रहता है
कुटुंब में सब मिलकर रहना
हमारे पुरखों का कहना
सुखी परिवार होता है
सुखी संसार होता है


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भारत के नोजवानों भारतीय पुकारती है
भेदभाव छोड़कर साथ - साथ आइए
दांव पे लगी फिर भारतीय की लाज
आज सिंघनाथ कर सोये राष्ट्र को जगाइये

वाणी की विनम्रता दोष बन न जाए कहीं
अपना प्रचंड रूप शत्रु को दिखाइए
एक हाथ में गंगा दूसरे में तिरंगा
लेके फिर वंदे मातरम गीत गाइये

भारत के वासी हम हिन्द के निवासी हम
हमें अपने वतन पर अभिमान है
रानी झांसी महाराणा छत्रसाल हो जहाँ के
ऐसी पुण्य भूमि शस्य श्यामला महान है

काश्मीर से सुदूर कन्याकुमारी तक
भारत का कण कण ईश वरदान है
धर्म जाती भाषा प्रांत हो चाहें अनेक यहाँ
एक धरती हमारी एक आसमान है

--भारत माता की जय



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युगों से बहती आई हिन्दु संस्कृति धारा,
इससे ही एकात्म हुआ है सारा राष्ट्र हमारा !!

वेदों की पावन धरती यह, देवों ने अवतार लिये,
राम, कृष्ण, गौतम, नानक ने अमृत्सम सुविचार दिए,
एक सूत्र में पिरो सभी को … 2,
दिया स्नेह सहारा ! इससे ही एकात्म …..

वनवासी, गिरिवासी वंचित, बन्धु सहोदर हैं अपने,
सबको लेकर साथ चलें हम, पूर्ण करें सबके सपने,
समरस जीवन से टूटेगी …2, भेदभाव की कारा ! इससे ही एकात्म …..

नारी का सम्मान यहाँ की, गौरवशाली परम्परा,
मातृशक्ति के संस्कारों से, पोषित है यह पुण्य धरा,
त्याग प्रेम के आदर्शों ने …2,
भारत भाग्य संवारा ! इससे ही एकात्म …..

युगों-युगों से बहती आई हिन्दु संस्कृति धारा
इससे ही एकात्म हुआ है सारा राष्ट्र हमारा !!



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नमन करें इस मातृभूमि को, नमन करें आकाश को
बलिदानों की पृष्ठभूमि पर, निर्मित इस इतिहास को ॥धृ॥

इस धरती का कण-कण पावन, यह धरती अवतारों की है ।
ऋषि-मुनियों से वन्दित धरती, धरती वेद-पुराणों की है ।
मौर्यगुप्त सम्राटों की यह, विक्रम के अभियानों की है ।
महावीर गौतम की धरती, धरती चैत्य विहारों की है ।
नमन करें झेलम के तट को, हिममंडित कैलाश को ॥१॥

याद करें सन सत्तावन की, उस तलवार पुरानी को हम ।
रोटी और कमल ने लिख दी, युग की अमिट कहानी को हम ।
माय मेरा रंग दे बसंती चोला, भगतसिंह बलिदानी को हम ।
खून मुझे दो आज़ादी लो, इस सुभाष की वाणी को हम ।
गुरु गोविन्दसिंह की कलियों के उस, अजर अमर बलिदान को ॥२॥


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अनेकता में ऐक्य मंत्र को, जन-जन फिर अपनाता है।
धीरे-धीरे देश हमारा, आगे बढता जाता है।

इस धरती को स्वर्ग बनाया, ॠषियों ने देकर बलिदान॥
उन्हीं के वंशज आज चले फिर, करने को इसका निर्माण।
कर्म पंथ पर आज सभी को गीता ग्यान बुलाता है॥1॥

जाति, प्रान्त और वर्ग भेद के, भ्रम को दूर भगाना है।
भूख, बीमारी और बेकारी, इनको आज मिटाना है।
एक देश का भाव जगा दें, सबकी भारत माता है॥2॥

हमें किसी से बैर नहीं है, हमें किसी से भीति नहीं।
सभी से मिलकर काम करेंगे, संगठना की रीति यही।
नील गगन पर भगवा ध्वज यह, लहर लहर लहराता है॥3॥


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कहीं पर्वत झुके भी हैं, कहीं दरिया रुके भी हैं।
नहीं झुकती जवानी है, नहीं रुकती रवानी है।
गुरु गोविंद के बच्चे, उमर में थे अगर कच्चे।
मगर थे सिंह के बच्चे, धरम ईमान के सच्चे।

गरज कर बोल उठे थे यूँ, सिंह मुँह खोल उठे थे यूँ।
नहीं हम झुक नहीं सकते, नहीं हम रुक नहीं सकते।
हमें निज देश प्यारा है, हमें निज धर्म प्यारा है।
पिता दशमेश प्यारा है, श्री गुरु ग्रंथ प्यारा है।

जोरावर जोर से बोला, फतेह सिंह शोर से बोला।
रखो ईंटें भरो गारे, चुनो दीवार हत्यारे।
हमारी सांस बोलेगी, हमारी लाश बोलेगी।
यही दीवार बोलेगी, हजारों बार बोलेगी।

हमारे देश की जय हो, पिता दशमेश की जय हो।
हमारे धर्म की जय हो, श्री गुरु ग्रंथ की जय हो।

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हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे
संगठन का भाव भरते जा रहे
हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे

यह सनातन राष्ट्र मंदिर है यहाँ
वेद की पावन ऋचाएं गूंजती
प्रकृति वरदान पाकर शक्तियां
देव निर्मित इस धरा को पूजती
हम स्वयं देवत्व गढ़ते जा रहे
हम विजय की ओर बढते जा रहे

राष्ट्र की जो चेतना सोई पड़ी
हम उसे फिर से जगाने आ गए
परम पौरुष की पताका हाथ ले
क्रांति के नव गीत गाने आ गये
विघ्न बाधा शैल चढ़ते जा रहे
हम विजय की ओर बढ़ते जा रहे

हम युवाओं का करें आह्वान फिर
शक्ति का नव ज्वार पैदा हो सके
राष्ट्र रक्षा का महाअभियान लें
संगठन भी तीव्रगामी हो सके
लक्ष्य का संधान करते रहे
हम विजय की ओर बढ़ते का रहे


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सत्य का आधार लेकर, हम हिमालय से खड़े हैं।
शील में, औदार्य में हम, विश्व में सबसे बड़े हैं।।धृ।।
संघ की शाखा निरंतर, शक्ती की आराधना हैं।
राष्ट्र की नवचेतना के, जागरण की साधना हैं।
ध्येय पथ पर अडिग होकर, पैर अंगद से गडेे है।।१।।
सत्य का आधार लेकर...
विश्व में फहराएंगे हम, देव संस्कृती की पताका।
जगत को संदेश देंगे, हिन्दुओ की एकता का।
दूर कर अवरोध सारे, ध्येय पथ पर हम बढे हैं।।२।।
सत्य का आधार लेकर...
जीत ले विश्वास सब का, कर्म कौशल के सहारे।
बुद्धी बल से नष्ट कर दे, शत्रु के, षडयंत्र सारे।
संगठन का मार्ग दुर्गम, नियम संयम से चले हैं।।३।।
सत्य का आधार लेकर..

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जीवन में कुछ करना है तो मन को मारे मत बैठो

जीवन में कुछ करना है तो मन को मारे मत बैठो
आगे आगे बढ़ना है तो हिम्मत हारे मत बैठो ।
तेज दौड़ने वाला खरहा दो पग चलकर ठहर गया
धीरे धीरे चलकर कछुआ देखो बाजी मार गया
चलो कदम से कदम मिलाकर दूर किनारे मत बैठो
आगे आगे बढ़ना है तो हिम्मत हारे मत बैठो
चलने वाला मंजिल पाता बैठा पीछे रहता है
ठहरा पानी सड़ने लगता बहता निर्मल होता है
पाव दिए चलने की खातिर पाव पसारे मत बैठो
आगे आगे बढ़ना है तो हिम्मत हारे मत बैठो
धरती चलती तारे चलते चाद रात भर चलता है
किरणों का उपहार बाटने सूरज रोज निकलता है
हवा चले तो महक बिखेरे तुम भी प्यारे मत बैठो
आगे आगे बढ़ना है तो हिम्मत हारे मत बैठो
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jeevan-mein-kuch-karna-hai-to


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हिन्दु हिन्दु एक रहे भेद भाव को नही सहे
संघर्षो से दुखी जगत को मानवता की शिक्षा दे ॥धृ॥

एक ब्रह्म कुछ और नही हरिहर दुर्गा मात वही
देव देविया रूप उसीका देश काल अनुसार सही
सब पन्थों का मान करे सब ग्रंथो से ग्यान गहे
सदगुरुओं की सीख समझकर जीवन को जीना सीखे ॥१॥

जो भाई भटके बिछडे हाथ पकड ले साथ चले
भोजन कपडा घर की सुविधा शिक्षा सबको सुलभ रहे
उंच-नीच लवलेश न हो छुवा-छूत अवशेष न हो
एक लहू सब की नस-नस मे अपनेपन की रीत गहे ॥२॥

धर्म प्रेम अमृत पीये गीता गंगा गौ पूजे
वेद विहीत जीवन रचना हो राम कृष्ण शिव भक्ति करे
धर्म सनातन अनुगामी बुद्धम्-शरणम्-गच्छामि
अर्हंतोंको नमन करे नित वाहे गुरु अकाल कहे ॥३॥

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शिव तो जागे किन्तु देश का शक्ती जागरण शेष है ।
देव जुटे यत्नोमें लेकिन असुर निवारण शेष है
वक्ष विदारण शेष है ॥धृ॥

संघे शक्ती कलौ युगे यह जन मन का विश्वास है।
पौरुष ही आधार सत्य का इसका भी आभास है।
सामुहिक आर्यत्व शक्ती का आयुध धारण शेष है ॥

यमुना दूषित गंगा मैली रामजन्मभू खिन्न है ।
रघुकुल रीती भुला-ई हमने भा-ई भा-ई भिन्न है ।
गोरा शासन गया दास्य का जड का कारण शेष है ॥

अबला अब भी नारी बेबस अर्जुन भ्रम मे ग्रस्त है
हुये मुग्ध अभिमन्यु व्युह मे धर्म होट मे मस्त है
द्रुपद सुता का चीर उतरता संकट तारण शेष है ॥

इस धरती पर हिन्दु शक्ती को फिर चेतन होना होगा
दिव्यायुध आभूषित होकर असमंजस खोना होगा
शंखनाद हो चुका युद्ध का जय उच्चारण शेष है ॥


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"जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है"।
जननी-जन्मभूमि स्वर्ग से महान है ।
इसके वास्ते ये तन है मन है और प्राण है ॥
जननी-जन्मभूमि स्वर्ग से महान है ॥ध्रु॥


इसके कण-कण पे लिखा राम-कृष्ण नाम है ।
हुतात्माओं के रुधिर से भूमि शस्य-श्याम है ।
धर्म का ये धाम है, सदा इसे प्रणाम है ।
स्वतंत्र है यह धरा, स्वतंत्र आसमान है ॥१॥


इसके आन पे अगर जो बात कोई आ पड़े ।
इसके सामने जो ज़ुल्म के पहाड़ हों खड़े ।
शत्रु सब जहान हो, विरुद्ध आसमान हो ।
मुकाबला करेंगे जब तक जान में ये जान है ॥२॥


इसकी गोद में हज़ारों गंगा-यमुना झूमती ।
इसके पर्वतों की चोटियाँ गगन को चूमती ।
भूमि ये महान है, निराली इसकी शान है ।
इसके जय-पताके पे लिखा विजय-निशान ॥३॥


"जननी जन्मभूमि स्वर्ग से महान है"।
जननी-जन्मभूमि स्वर्ग से महान है ।
इसके वास्ते ये तन है मन है और प्राण है ॥
जननी-जन्मभूमि स्वर्ग से महान है ॥ध्रु॥


!! भारत माता की जय !!



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           !! चन्दन है इस देश की माटी !!


चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है ।
हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥
हर शरीर मन्दिर सा पावन, हर मानव उपकारी है ।
जहाँ सिंह बन गये खिलौने, गाय जहाँ मा प्यारी है ।
जहाँ सवेरा शंख बजाता, लोरी गाती शाम है ।


हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥
जहाँ कर्म से भाग्य बदलते, श्रम निष्ठा कल्याणी है ।
त्याग और तप की गाथाएँ, गाती कवि की वाणी है ॥
ज्ञान जहाँ का गंगा जल सा, निर्मल है अविराम है ।


हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥
इसके सैनिक समर भूमि में, गाया करते गीता हैं ।
जहाँ खेत में हल के नीचे, खेला करती सीता हैं ।
जीवन का आदर्श यहाँ पर, परमेश्वर का धाम है ।


हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥
चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है ।
हर बाला देवी की प्रतिमा, बच्चा-बच्चा राम है ॥
स्व. श्री चंद्रकांत भारद्वाज 'ध्रुव'



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                  गीत


संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो ।
भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किए चलो ॥
संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो ।
भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किए चलो ॥

युग के साथ मिल के सब कदम बढ़ाना सीख लो ।
एकता के स्वर में गीत गुनगुनाना सीख लो ॥

भूल कर भी मुख में जाति-पंथ की न बात हो ।
भाषा-प्रांत के लिए कभी ना रक्तपात हो ॥
फूट का भरा घड़ा है फोड़ कर बढ़े चलो ।

आ रही है आज चारों ओर से यही पुकार ॥
हम करेंगे त्याग मातृभूमि के लिए अपार ।

कष्ट जो मिलेंगे मुस्कुरा के सब सहेंगे हम ॥
देश के लिए सदा जिएंगे और मरेंगे हम ।

देश का ही भाग्य अपना भाग्य है ये सोच लो ॥
संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो ।

भला हो जिसमें देश का, वो काम सब किये चलो ॥

|| वंदे मातरम || || जय हिंद ||



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                  गीत


हे जन्मभूमि भारत! हे कर्मभूमि भारत!
हे वन्दनीय भारत! अभिनंदनीय भारत!
जीवन सुमन चढ़ा कर हम साधना करेंगे
तेरी जनम जनम भर हम साधना करेंगे


हम अर्चना करेंगे, हम वंदना करेंगे |
जिसका मुकुट हिमालय यूँ जगमगा रहा है,
सागर जिसे रतन की अंजलि चढ़ा रहा है,
वह देश है हमारा ललकार कर कहेंगे;
तेरी जनम जनम भर हम साधना करेंगे |
हम अर्चना करेंगे, हम वंदना करेंगे |


महिमा महान तू है, गौरव निधान तू है,
तू प्राण है हमारी, जननी सामान तू है |
तेरे लिए जियेंगे, तेरे लिए मरेंगे |
तेरी जनम जनम भर हम साधना करेंगे |
हम अर्चना करेंगे हम वंदना करेंगे |


हे जन्मभूमि भारत! हे कर्मभूमि भारत!
हे वन्दनीय भारत! अभिनंदनीय भारत!

Thursday, November 24, 2016

 श्री तेगबहादुर जी नवें गुरु
24 नवम्बर 1675 बलिदान दिवस पर शत शत नमन ।

विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।

"धरम हेत साका जिनि कीआ
सीस दीआ पर सिरर न दीआ।"
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था।

एक बार नवें गुरु श्री तेगबहादुर जी हर दिन की तरह दूर-दूर से आये भक्तों से मिल रहे थे। लोग उन्हें अपनी निजी समस्याएँ तो बताते ही थे; पर औरंगजेब के  अत्याचारों की चर्चा सबसे अधिक होती थी। मुस्लिम आक्रमणकारी हिन्दू गाँवों को जलाकर मन्दिरों और गुरुद्वारों को भ्रष्ट कर रहे थे।
पर उस दिन का माहौल कुछ अधिक ही गम्भीर था। कश्मीर से आये हिन्दुओं ने उनके दरबार में दस्तक दी थी। वहाँ जो अत्याचार हो रहे थे, उसे सुनकर गुरुजी की आँखें भी नम हो गयीं। वे गहन चिन्तन में डूब गये। रात में उनके पुत्र गोविन्दराय ने जब चिन्ता का कारण पूछा, तो उन्होंने सारी बात बताकर कहा - लगता है कि अब किसी महापुरुष को धर्म के लिए बलिदान देना पड़ेगा; पर वह कौन हो, यही मुझे समझ नहीं आ रहा है।

गोविन्दराय ने एक क्षण का विलम्ब किये बिना कहा - पिताजी, आज आपसे बड़ा महापुरुष कौन है ? बस, यह सुनते ही गुरु जी के मनःचक्षु खुल गये। उन्होंने गोविन्द को प्यार से गोद में उठा लिया। अगले दिन उन्होंने कश्मीरी हिन्दुओं को कह दिया कि औरंगजेब को बता दो कि यदि वह गुरु तेगबहादुर को मुसलमान बना ले, तो हम सब भी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।

कश्मीरी हिन्दुओं से यह उत्तर पाकर औरंगजेब प्रसन्न हो गया। उसे लगा कि यदि एक व्यक्ति के मुसलमान बनने से हजारों लोग स्वयं ही उसके पाले में आ जायेंगे, तो इससे अच्छा क्या होगा ? उसने दो सरदारों को गुरुजी को पकड़ लाने को कहा। गुरुजी अपने पाँच शिष्यों भाई मतिदास, भाई सतिदास, भाई दयाला, भाई चीमा और भाई ऊदा के साथ दिल्ली चल दिये।

मार्ग में सब जगह हिन्दुओं ने उनका भव्य स्वागत किया। इस पर औरंगजेब ने आगरा में उन्हें गिरफ्तार करा लिया। उन्हें लोहे के ऐसे पिंजड़े में बन्द कर दिया गया, जिसमें कीलें निकली हुई थीं। दिल्ली आकर गुरुजी ने औरंगजेब को सब धर्मावलम्बियों से समान व्यवहार करने को कहा; पर वह कहाँ मानने वाला था।

उसने कोई चमत्कार दिखाने को कहा; पर गुरुजी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर उन्हें और उनके शिष्यों को शारीरिक तथा मानसिक रूप से खूब प्रताड़ित किया गया; पर वे सब तो आत्मबलिदान की तैयारी से आये थे। अतः औरंगजेब की उन्हें मुसलमान बनाने की चाल विफल हो गयी।

सबसे पहले नौ नवम्बर को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीर दिया गया। अगले दिन भाई सतिदास को रुई में लपेटकर जलाया गया। भाई दयाला को पानी में उबालकर मारा गया। गुरुजी की आँखों के सामने यह सब हुआ; पर वे विचलित नहीं हुए। अन्ततः 24 नवम्बर, 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरुजी का भी शीश काट दिया गया। जहाँ उनका बलिदान हुआ, वहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज विद्यमान है।

औरंगजेब हिन्दू जनता में आतंक फैलाना चाहता था; पर गुरु तेगबहादुर जी के बलिदान से हिन्दुओं में भारी जागृति आयी। उनके बारे में कहा गया कि उन्होंने सिर तो दिया; पर सार नहीं दिया। आगे चलकर उनके पुत्र दशम गुरु गोविन्दसिंह जी ने हिन्दू धर्म की रक्षार्थ खालसा पन्थ की स्थापना की।
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शास्त्री जी ज़िंदाबाद !
ये वही शास्त्री जी है जिन्होंने अपने प्रधानमंत्री रहते समय लाहौर पे ऐसा कब्ज़ा जमाया था की पुरे विश्व ने जोर लगा लिया लेकिन लाहौर देने से इनकार कर दिया था | आख़िरकार उनकी एक बड़ी साजिस के तहत हत्या कर दी गयी | जिसका आज तक पता नहीं लगाया जा सका है |
1. जब इंदिरा शाश्त्रीजी के घर (प्रधान मंत्री आवास ) पर पहुची तो कहा कि यह तो चपरासी का घर लग रहा है, इतनी सादगी थी हमारे शास्त्रीजी में...
2. जब 1965 मे पाकिस्तान से युद्ध हुआ था तो शासत्री जी ने भारतीय सेना का मनोबल इतना बड़ा दिया था की भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना को गाजर मूली की तरह काटती चली गयी थी और पाकिस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा जीत लिया था ।
3. जब भारत पाकिस्तान का युद्ध चल रहा तो अमेरिका ने भारत पर दबाव बनाने के लिए कहाथा की भारत युद्ध खत्मकर दे नहीं तो अमेरिकाभारत को खाने के लिए गेहू देना बंद कर देगातो इसके जवाब मे शास्त्री जी ने कहाकीहम स्वाभिमान से भूखे रहना पसंद करेंगे किसी के सामने भीख मांगने की जगह । और शास्त्री जी देशवासियों से निवेदन किया की जब तक अनाज की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक सब लोग सोमवार का व्रत रखना चालू कर दे और खाना कम खाया करे ।
4. जब शास्त्री जी तस्केंत समझोते के लिए जा रहे थे तो उनकी पत्नी के कहा की अब तो इस पुरानी फटी धोती कीजगह नई धोती खरीद लीजिये तो शास्त्री जी ने कहा इस देश मे अभी भी ऐसे बहुत से किसान है जो फटी हुई धोती पहनते है इसलिए मै अच्छे कपडे कैसे पहन सकता हु क्योकि मै उन गरीबो का ही नेता हूँ अमीरों का नहीं और फिरशास्त्री जी उनकी फटी पुरानी धोती को अपने हाथ से सिलकर तस्केंत समझोते के लिए गए ।
5. जब पाकिस्तान से युद्ध चल रहा था तो शास्त्री जी ने देशवासियों से कहा की युद्ध मे बहुत रूपये खर्च हो सकते है इसलिएसभी लोग अपने फालतू केखर्च कम कर देऔर जितना हो सके सेना को धन राशि देकर सहयोगकरें । और खर्च कम करने वाली बात शास्त्री जी ने उनके खुद के दैनिक जीवन मे भी उतारी । उन्होने उनके घर के सारे काम करने वाले नौकरो को हटा दिया था और वो खुद ही उनके कपड़े धोते थे, और खुद ही उनके घर की साफ सफाई और झाड़ू पोंछा करते थे ।
6. शास्त्री जी दिखन?े मे जरूर छोटे थे पर वो सच मे बहुत बहादुर और स्वाभिमानी थे ।
7. जब शास्त्री जी की मृत्यु हुई तो कुछ नीचलोगों ने उन पर इल्ज़ाम लगाया की शास्त्री जी भ्रस्टाचारी थे पर जांच होने के बाद पता चला की शास्त्री जी केबैंक के खाते मे मात्र365/- रूपये थे । इससे पता चलता है की शास्त्री जी कितने ईमानदार थे ।
8. शास्त्री जी अभी तक के एक मात्र ऐसे प्रधान मंत्री रहे हैं जिनहोने देश के बजट मे से 25 प्रतिशत सेना के ऊपर खर्च करनेका फैसला लिया था । शास्त्री जी हमेशा कहते थे की देश का जवान और देश का किसान देश के सबसे महत्वपूर्ण इंसान हैं इसलिए इन्हे कोई भी तकलीफ नहीं होना चाहिए और फिर शास्त्री जी ने 'जय जवान जय किसान' का नारा दिया ।
9.जब शास्त्रीजि तस्केंत गए थे तो उन्हे जहर देकर मार दिया गया था और देश मे झूठी खबर फैला दी गयी थी की शास्त्री जी की मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से हुई । और सरकार ने इस बात पर आज तक पर्दा डाल रखा है ।
10 शास्त्री जी जातिवाद के खिलाफ थे इसलिए उन्होने उनके नाम के आगे श्रीवास्तव लिखना बंद कर दिया था ।
हम धन्य हैं की हमारी भूमि पर ऐसे स्वाभिमानी और देश भक्त इंसान ने जन्म लिया । यह बहुत गौरव की बात है की हमे शास्त्री जी जैसे प्रधान मंत्री मिले ।
जय जवान जय किसान !
शास्त्री जी ज़िंदाबाद !
इंकलाब ज़िंदाबाद !.
आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति

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डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का बलिदान दिवस है (23 जून)

आज महान क्रांतिकारी डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी जी का बलिदान दिवस है ( जन्म : 6 जुलाई, 1901 - मृत्यु : 23 जून, 1953) डॉ. मुखर्जी महान शिक्षाविद्, चिन्तक और भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे। एक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में भारतवर्ष की जनता उन्हें स्मरण करती है। एक कट्टर राष्ट्र भक्त के रूप में उनकी मिसाल दी जाती है। भारतीय इतिहास उन्हें एक जुझारू कर्मठ विचारक और चिन्तक के रूप में स्वीकार करता है।भारतवर्ष के लाखों लोगों के मन में एक निरभिमानी देशभक्त की उनकी गहरी छबि अंकित है। वे आज भी बुद्धिजीवियों और मनीषियों के आदर्श हैं। वे लाखों भारतवासियों के मन में एक पथप्रदर्शक एवं प्रेरणापुंज के रूप में आज भी समाये हुए हैं। एक देश में दो निशान, एक देश में
दो प्रधान, एक देश में दो विधान - नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें।" संसद में अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ० मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये
अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर
की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर
लिया गया। 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु
हो गयी। इस प्रकार वे भारत के लिये एक प्रकार से शहीद हो गये। डॉ०श्यामाप्रसाद मुखर्जी के रूप में भारत ने एक ऐसा व्यक्तित्व खो दिया जो हिन्दुस्तान को नयी दिशा दे सकता था।
डॉ. मुखर्जी अमर रहें !

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अनुपम दानी : भामाशाह – 28 जून / जन्म-दिवस


दान की चर्चा होते ही भामाशाह का नाम स्वयं ही मुँह पर आ जाता है। देश रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमा पूँजी अर्पित करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर (राजस्थान) में 28 जून, 1547 को हुआ था। उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं। श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने पिता की तरह भामाशाह भी राणा परिवार के लिए समर्पित थे।
एक समय ऐसा आया जब अकबर से लड़ते हुए राणा प्रताप को अपनी प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पड़ा। वे अपने परिवार सहित जंगलों में रह रहे थे। महलों में रहने और सोने चाँदी के बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़ रहे थे। राणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ,जिससे अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों से चंगुल से मुक्त करा सकंे।
इस समय राणा के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी। उनके साथ जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था। कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह दी; पर राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह स्वीकार नहीं था। भामाशाह को जब राणा प्रताप के इन कष्टों का पता लगा, तो उनका मन भर आया। उनके पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था। उन्होंने यह सब राणा के चरणों में अर्पित कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने 25 लाख रु. तथा 20,000 अशर्फी राणा को दीं। राणा ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा लिया।
राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है। यह सब धन मैंने देश से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया।
उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह भड़क गया। वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे; पर इस धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी। अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को कहा। अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा नहीं देता। इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले और राणा प्रताप को छोड़ दे; पर दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध की तैयारी भी कर ली। यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया।
भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया। भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे। महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट आया, तो उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है।

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महारानी दुर्गावती बलिदान दिवस (24 जून)          

महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस और शौर्य के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
उनका विवाह गढ़ मंडला के प्रतापी राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपतशाह से हुआ। 52 गढ़ तथा 35,000 गांवों वाले गोंड साम्राज्य का क्षेत्रफल 67,500 वर्गमील था। यद्यपि दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी। फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने उसे अपनी पुत्रवधू बना लिया।
पर दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था। मालवा के शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया; पर हर बार वह पराजित हुआ। मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में सेनाएं भेज दीं। आसफ खां गोंडवाना के उत्तर में कड़ा मानकपुर का सूबेदार था।
एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये। रानी की भी अपार क्षति हुई। रानी उसी दिन अंतिम निर्णय कर लेना चाहती थीं। अतः भागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम क्षेत्र से बाहर निकल गयीं। तब तक रात घिर आयी। वर्षा होने से नाले में पानी भी भर गया।
अगले दिन 24 जून, 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा। रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी निकाला; पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे; पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई। उसका ढहता हुआ साम्राज्य फिर से जम गया। इस धन से उसने सेना एकत्र कर अगले तीन वर्ष में चित्तौड़ को भी जीता।
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, वहां रानी की समाधि बनी है। देशप्रेमी वहां जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

Friday, October 14, 2016

*अज्ञान आक्षेप :* क्या शिवलिंग घृणित नहीं है? किसी महिला के निजी अंग (योनि) पर रखे एक पुरुष के निजी अंग की पूजा महिलाओं द्वारा करना और उस पर दूध चढ़ाना! कितना अश्लील है!

*उत्तर:* वास्तव में अश्लीलता तो तुम्हारे मन में है जो हर चीज में अश्लीलता खोजने को उतावला रहता है। खास तौर पर हिंदू प्रतीकों में, सत्य क्या है सुनो

शिव :
शिव का अर्थ है कल्याण। "ॐ नमः शिवाय"- जो सभी का कल्याण करता है, मैं उस परमपिता परमात्मा के समक्ष समर्पण करता हूँ। बिना किसी भेदभाव के, सभी के कल्याण की प्रार्थना करता हूँ।

लिंग:
लिंग का अर्थ है चिन्ह। जैसे स्त्रीलिंग का अर्थ है कोई ऐसी वस्तु जो स्त्रीरूप में कल्पित की जा सके। अब वह एक वास्तविक महिला भी हो सकती है या कोई ऐसी वस्तु जो स्त्री रूप में सोची जा सके। उदाहरण के लिए, नदी, लता आदि। इसी तरह पुल्लिंग उसे कहते हैं जो पुरुष के प्रतीक रूप में माना जा सके, जैसे आदमी, पहाड़, वृक्ष आदि।

शिवलिंग:
इसी प्रकार जो शिव के प्रतीक रूप में माना जा सके, वही शिवलिंग है (अर्थात कुछ ऐसा जिसके प्रति हम सभी के कल्याण की हमारी शुभभावनाओं को जोड़ सकें।)

फिर मंद बुद्धि क्या पूछता *"प्रतीक के रूप में पुरुष जननांग क्यों ?":*

*उत्तर:* वह प्रतीक या चिन्ह क्या हो सकता है? वेदों में अनेक जगह परमपिता परमात्मा को एक ऐसे स्तम्भ के रूप में देखा गया है जो समस्त सात्विक गुणों, शुभ वृत्तियों का आधार है। वही मृत्यु और अमरता, साधारण और महानता के बीच की कड़ी है।
यही कारण है कि हिंदू मंदिरों और हिन्दू स्थापत्य कला में स्तम्भ या खंभे प्रचुर मात्रा में देखे जाते हैं।
जो लोग शिवलिंग में पुरुष का जननांग देखते हैं, उन्हें हर बेलनाकार वस्तु में शायद शिश्न ही दीखता होगा? जैसे खम्भे, बेलन, सरिये, अपनी उंगलियों तक में? यह एक मानसिक विकार ही है।

इसके अतिरिक्त, योग साधना भी अग्नि की लौ पर ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास करने को कहती है,
शिवलिंग और कुछ नहीं ऐसा लौकिक स्तंभ ही है जिस पर हम (अग्नि की लौ की तरह) ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और हमारी कल्याणकारी भावनाओं को उससे जोड़ सकते हैं। यही कारण है कि शिवलिंग को ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है। ज्योति आत्मज्ञान का वह पथ जो अलौकिक दिव्य प्रतिभा की ओर ले जाता है।
(आदित्यवर्णं तमसः परस्तात् - प्रकाश से पूर्ण, अज्ञान अंधकार तम से हीन)

*दूसरा बुद्धिहीन प्रश्न किया:* "पर महिला का निजी अंग (योनि) लिंग के नीचे क्यों होता है?"
*उत्तर:* पुनः ये तुम्हारा मानसिक विकार ही है। योनि का मतलब है घर। मकान नहीं घर। अपने स्थायी पते की तरह। यही कारण है कि जीवों की विभिन्न प्रजातियों को योनि कहा जाता है।

दीपक भी 'लौ' की 'योनि' है। दीपक लौ को जलने के लिए स्थिर आधार प्रदान करता है। उसी प्रकार ब्रह्मांडीय स्तंभ को भी एक ठोस आधार के लिए नींव की जरूरत है। वरना स्तम्भ गिर जाएगा। स्तंभ शक्तिशाली होना चाहिए जो विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी स्थिरता प्रदान करने में सक्षम हो।

शिव लिंग है और शक्ति योनि है। शिव के साथ सदैव शक्ति अर्थात ऊर्जा है।
यही शिव और शक्ति के सम्बन्ध का मूलतत्व है।

हे मंद बुद्धि तुझे थोड़ी और ग्यांन देता हूँ:
वेदों का एक बुनियादी नियम है: यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे, अर्थात जैसा पिंड में घटित होता है वैसा ही ब्रम्हांड में होता है अर्थात शिव-शक्ति का सम्बन्ध दुनिया के प्रत्येक सृजनात्मक व विनाशकारी घटनाओं का आधार है। जब शिव और शक्ति मिलते हैं, तो सृजन होता है। और उनके वियोग से ही विनाश होता है। यही शिव और शक्ति, मित्र और वरुण, अग्नि और सोम, उष्ण और शीत, द्युलोक और पृथ्वी के रूप में परिणत होकर सृजन और प्रलय करते हैं।
यह जीवन के सभी पहलुओं में लागू होता है। वेद ही इस सिद्धांत का स्रोत है।
हम संसार में देखते हैं कि शक्ति स्त्रीरूपी है। नारी स्थिरता और पोषण प्रदान करने वाली है। तुमने अपनी माँ से ही गर्भ में और बाहर भी पोषण पाया था। इसीलिए वैदिक संस्कृति में गौ, गंगा, तुलसी आदि हर पोषण प्रदायक वस्तु को माँ के रूप में देखा जाता है। पुरुष बाहर की ओर उपक्रम करता है क्योंकि वह स्थिर हो जाता है।

 मंद बुद्धि को समझाते हुए फिर से कहा, किसी चीज का केवल इसीलिए अपमान मत करो क्योंकि वह तुम्हारी बुद्धि में नहीं घुस रहा है। क्योंकि छोटी बुद्धि का कोई मनुष्य यदि किसी उच्च सिद्धान्त को न समझ पाए और उसका खंडन करने की इच्छा रखता हो तो पहले वो उस उच्च-सिद्धान्त को अपनी बुद्धि के स्तर तक लाएगा, तभी वो उसपर जीभ हिला पाएगा, यही तुम्हारे जैसे लोगों का हाल है।

जो लोग शिवलिंग पर दूध अर्पित करने को पैसे बर्बादी कहते हैं, वे इसकी महत्ता को कभी नहीं जान सकते।
हिन्दू का मानना ​​है कि धन अनन्त है। धन का लाभ धन इकट्ठा करना नहीं है धर्म करना है। और धर्मपालन द्वारा और धन अर्जित कीजिए।

मंद बुद्धि भाई साहब का तो मुह बन्द कर दिया अब आप सबसे भी निवेदन करता हूँ:
शिवरात्रि मनाइये। नियमित रूप से भगवान शिव की पूजा अर्चना कीजिए। दूध अर्पित कीजिए। और गोशालाओं को दान दीजिए। गायों का संवर्धन करें। ॐ नमः शिवाय का अभिवादन की तरह प्रयोग करें। और भगवान शिव और माँ शक्ति के खिलाफ बोलने वालों के प्रति रूद्र (जो दुष्टों को रुलाता है) बनें।

।।ॐ नमः शिवाय।।



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शरद पूर्णिमा
आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। यूं तो हर माह में पूर्णिमा आती है, लेकिन शरद पूर्णिमा का महत्व उन सभी से कहीं अधिक है। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी इस पूर्णिमा को विशेष बताया गया है। इस बार शरद पूर्णिमा 15 अक्टूबर, शनिवार को है। जानिए शरद पूर्णिमा की रात इतनी खास क्यों है, इससे जुड़े विभिन्न पहलू व मनोवैज्ञानिक पक्ष-

चंद्रमा से बरसता है अमृत
शरद पूर्णिमा से जुड़ी कई मान्यताएं हैं। ऐसा माना जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणें विशेष अमृतमयी गुणों से युक्त रहती हैं, जो कई बीमारियों का नाश कर देती हैं। यही कारण है कि शरद पूर्णिमा की रात को लोग अपने घरों की छतों पर खीर रखते हैं, जिससे चंद्रमा की किरणें उस खीर के संपर्क में आती है, इसके बाद उसे खाया जाता है। कुछ स्थानों पर सार्वजनिक रूप से खीर का प्रसाद भी वितरण किया जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने रचाया था रास
शरद पूर्णिमा से जुड़ी एक मान्यता यह भी है कि इस दिन माता लक्ष्मी रात्रि में यह देखने के लिए घूमती हैं कि कौन जाग रहा है और जो जाग रहा है महालक्ष्मी उसका कल्याण करती हैं तथा जो सो रहा होता है वहां महालक्ष्मी नहीं ठहरतीं। शरद पूर्णिमा को रासलीला की रात भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों के अनुसार, शरद पूर्णिमा की रात को ही भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास रचाया था।

खीर खाने का है महत्व
शरद पूर्णिमा की रात का अगर मनोवैज्ञानिक पक्ष देखा जाए तो यही वह समय होता है जब मौसम में परिवर्तन की शुरूआत होती है और शीत ऋतु का आगमन होता है। शरद पूर्णिमा की रात में खीर का सेवन करना इस बात का प्रतीक है कि शीत ऋतु में हमें गर्म पदार्थों का सेवन करना चाहिए क्योंकि इसी से हमें जीवनदायिनी ऊर्जा प्राप्त होगी।

आरोग्य व पुष्टि देनेवाली खीर
शरद पूनम ( 15 अक्टूबर 2016 शनिवार ) की रात को आप जितना दूध उतना पानी मिलाकर आग पर रखो और खीर बनाने के लिए उसमें यथायोग्य चावल तथा शक्कर या मिश्री डालो | पानी बाष्पीभूत हो जाय, केवल दूध और चावल बचे, बस खीर बन गयी | जो दूध को जलाकर तथा रात को बादाम, पिस्ता आदि डाल के खीर खाते हैं उनको तो बीमारियाँ का सामना करना पड़ता है | उस खीर को महीन सूती कपड़े, चलनी या जाली से अच्छी तरह ढककर चन्द्रमा की किरणों में पुष्ट होने के लिए रात्रि 9 से 12 बजे तक रख दिया | बाद में जब खीर खायें तो पहले उसे देखते हुए 21 बार ‘ॐ नमो नारायणाय |’ जप कर लें तो वह औषधि बन जायेगी | इससे वर्षभर आपकी रोगप्रतिकारक शक्ति की सुरक्षा व प्रसन्नता बनी रहेगी |
इस रात को हजार काम छोडकर कम-से-कम 15 मिनट चन्द्रमा की किरणों का फायदा लेना, ज्यादा लो तो हर्ज नहीं | छत या मैदान में आसन बिछाकर चन्द्रमा को एकटक देखना | अगर मौज पड़े तो आप लेट भी सकते हैं |

जय श्री राम ।।
vidyapati and god shiva story

देवों में देव महादेव की कोई जलती लकड़ी से पिटाई करे ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता लेकिन, यह बात बिल्कुल सच है। बात कुछ 1360 ई. के आस-पास की है। उन दिनों बिहार के विस्फी गांव में एक कवि हुआ करते थे। कवि का नाम विद्यापति था। कवि होने के साथ-साथ विद्यापति भगवान शिव के अनन्य भक्त भी थे। इनकी भक्ति और रचनाओं से प्रसन्न होकर भगवान शिव को इनके घर नौकर बनकर रहने की इच्छा हुई।



भगवान शिव एक दिन एक जाहिल गंवार का वेष बनाकर विद्यापति के घर आ गये। विद्यापति को शिव जी ने अपना नाम उगना बताया। विद्यापति की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी अतः उन्होंने उगना को नौकरी पर रखने से मना कर दिया। लेकिन शिव जी मानने वाले कहां थे। सिर्फ दो वक्त के भोजन पर नौकरी करने के लिए तैयार हो गये। इस पर विद्यापति की पत्नी ने विद्यापति से उगना को नौकरी पर रखने के लिए कहा। पत्नी की बात मानकर विद्यापति ने उगना को नौकरी पर रख लिया।

एक दिन उगना विद्यापति के साथ राजा के दरबार में जा रहे थे। तेज गर्मी के वजह से विद्यापति का गला सूखने लगा। लेकिन आस-पास जल का कोई स्रोत नहीं था। विद्यापति ने उगना से कहा कि कहीं से जल का प्रबंध करो अन्यथा मैं प्यासा ही मर जाऊंगा। भगवान शिव कुछ दूर जाकर अपनी जटा खोलकर एक लोटा गंगा जल भर लाए।

विद्यापति ने जब जल पिया तो उन्हें गंगा जल का स्वाद लगा और वह आश्चर्य चकित हो उठे कि इस वन में जहां कहीं जल का स्रोत तक नहीं दिखता यह जल कहां से आया। वह भी ऐसा जल जिसका स्वाद गंगा जल के जैसा है। कवि विद्यापति उगना पर संदेह हो गया कि यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं बल्कि स्वयं भगवान शिव हैं अतः उगना से उसका वास्तविक परिचय जानने के लिए जिद करने लगे।

जब विद्यापति ने उगना को शिव कहकर उनके चरण पकड़ लिये तब उगना को अपने वास्तविक स्वरूप में आना पड़ा। उगना के स्थान पर स्वयं भगवान शिव प्रकट हो गये। शिव ने विद्यापति से कहा कि मैं तुम्हारे साथ उगना बनकर रहना चाहता हूं लेकिन इस बात को कभी किसी से मेरा वास्तविक परिचय मत बताना।

विद्यापति को बिना मांगे संसार के ईश्वर का सानिध्य मिल चुका था। इन्होंने शिव की शर्त को मान लिया। लेकिन एक दिन विद्यापति की पत्नी सुशीला ने उगना को कोई काम दिया। उगना उस काम को ठीक से नहीं समझा और गलती कर बैठा। सुशीला इससे नाराज हो गयी और चूल्हे से जलती लकड़ी निकालकर लगी शिव जी की पिटाई करने। विद्यापति ने जब यह दृश्य देख तो अनायास ही उनके मुंह से निकल पड़ा 'ये साक्षात भगवान शिव हैं, इन्हें जलती लकड़ी से मार रही हो।' फिर क्या था, विद्यापति के मुंह से यह शब्द निकलते ही शिव वहां से अर्न्तध्यान हो गये।

इसके बाद तो विद्यापति पागलों की भांति उगना -उगना कहते हुए वनों में, खेतों में हर जगह उगना बने शिव को ढूंढने लगे। भक्त की ऐसी दशा देखकर शिव को दया आ गयी। भगवान शिव उगना के सामने प्रकट हो गये और कहा कि अब मैं तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। उगना रूप में मैं जो तुम्हारे साथ रहा उसके प्रतीक चिन्ह के रूप में अब मैं शिव लिंग के रूप विराजमान रहूंगा। इसके बाद शिव अपने लोक लौट गये और उस स्थान पर शिव लिंग प्रकट हो गया। उगना महादेव का प्रसिद्घ मंदिर वर्तमान में मधुबनी जिला में भवानीपुर गांव में स्थित है।

हर हर महादेव ।।

Thursday, October 13, 2016

सुंदरकांड हरी ॐ शरण द्वारा https://youtu.be/Sr04_12itTE

रामचरितमानस संपूर्ण अर्थ सहित https://youtu.be/XPgnuucr9uM

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥

भावार्थ:-कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया॥26॥

Tuesday, October 11, 2016

अमृत वचन
संघ की शाखा खेल खेलने अथवा परेड करने का स्थान मात्र नहीहै अपितु सज्जनो की सुरक्षा का बिन बोले अभिवचन है तरुणों को अनिष्ट व्यसनों से मुक्त रखनेवाला संस्कार पीठ है महिलाओ की निर्भयता व् सभ्य आचरण का आश्वासन है दुष्ट तथा देशद्रोही शक्तिओ पर अपनी धाक स्थापित करनेवाली शक्ति है समाज पर अकस्मात आनेवाली विपत्तियों व् संकटों में त्वरित व् निरपेक्ष सहायता मिलने का आशा केंद्र है और सबसे प्रमुख बात यह है की समाज जीवन के विविध क्षेत्रो में सुयोग्य कार्यकर्ता उपलब्ध कराने हेतु योग्य प्रशिक्षण देने वाला विद्यापीठ है
     प पू   बालासाहेब देवरस



अमृत वचन

अधर्म का उच्छेद करने के लिए संघ रूपी भगवद अवतार जगत में पुनः एक बार हुआ है। सर्वशक्तिमान ईश्वर कभी व्यक्ति के रूप में तो कभी संघ के रूप में प्रकट होते हैं। यह कलियुग है। कलियुग में संघ ही शक्ति है। अतः ईश्वर संघ के रूप में ही जगत में प्रकट होंगे और यह स्वरूप हमारे सामने विद्यमान है।
- प० पू० गुरूजी

Wednesday, August 24, 2016

New List India National Days

January 9 -NRI Day
January 12 -Youth Day
January 15 -Army Day
January 24 -National Girl Child Day
January 25 -National Tourism Day, National Voters Day
January 26 -Indian Republic Day
January 30 -Martyr's Day
February 1 -National Costal Area Protection Day
February 19 -Panchayati Raj Day
February 24 -Central Excise Day
February 28 -Science Day
March 4  -National Safety Day
March 18  -Ordnace Factory Day
April 5  -National Maritime Day
April 14  -Dr. B. R. Ambedkar's Birthday
May 1  -Labour Day
May 11  -Technical Education Day, National Technology Day
May 21  -Anti Terrorism Day
May 29  -Everest Day
June 29  -Statistics Day
July 26  -Kargil Victory Day
August 9  -Quit India Day
August 15   -Independence Day
August 20         -Sadbhavana Day
August 29         -Sports Day
September 5 -Teachers Day
September 14 -Hindi Day
September 15 -Engineers Day
October 2         -Gandhi Jayanti
October 8         -Airforce Day
October 10 -Postal Day
October 13 -Filately Day
October 31 -National Integration Day
November 9 -Law Day
November 11 -Education Day
November 14 -Childrens Day
November 19 -Citizen Day
November 24 -NCC Day
December 2 -National Pollution Control Day
December 4 -Indian Navy Day
December 7 -Armed Forces Flag Day
December 18 -Minority Rights Day
December 23 -Farmers Day
December 24 -Consumer Day

Tuesday, August 23, 2016

              ||  सुभाषित ||

"अश्वम नैव गजं नैव व्याघ्रं नैवच नैवच
अजा पुत्रं बलिं दद्यात देव दुर्वल घातक" ।।


[लोग घोड़ा,हाथी को बलि नहीं चढाते बाघ को तो कदापि नहीं, लेकिन बकरी को बलि चढ़ा देते हैं क्यूंकि दुर्वल को सब कोई सताते हैं ।। जैसे नपुंसक की जुवान से संयमता की बातें शोभा नहीं देता, जैसे दुर्वल व्यक्ति की जुवान से अहिंसा की बातें शोभा नहीं देता ]


इसीलिए कहा जाता है कि बलवान बनो सामर्थ्यवान बनो...


वन्दे मातरम... भारत माता की जय..
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देश के प्रति निष्ठा सभी निष्ठाओं से पहले आती है और यह पूर्ण निष्ठा है
क्योंकि इसमें कोई प्रतीक्षा नहीं कर सकता कि बदले में उसे क्या मिलता है।
~ Lal Bahadur Shastri

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राजपत्नी गुरो: पत्नी, मित्र पत्नी तथैव च,
पत्नी माता स्वमाता च, पंचैता मातरः स्मृता:।

अर्थ :- राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी पत्नी की माता और अपनी माता,--
यह पांच माताएं शास्त्रों में कही गयी हैं। अर्थात इन्हें मातृवत ही देखना चाहिए।
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सुभाषित
अमंत्रं अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलं अनौषधं।
अयोग्यः पुरुषः नास्ति, योजकः तत्र दुर्लभ:॥- शुक्राचार्य (शुक्र नीति)
अर्थात कोई अक्षर ऐसा नहीं है जिससे (कोई) मन्त्र न शुरू होता हो, कोई ऐसा मूल (जड़) नहीं है, जिससे कोई औषधि न बनती हो और कोई भी आदमी अयोग्य नहीं होता, उसको काम में लेने वाले (मैनेजर) ही दुर्लभ हैं।

कदम निरंतर चलते जिनके, श्रम जिनका अविराम है।
विजय सुनिश्चित होती उनकी, घोषित यह परिणाम है।।


"श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावाधार्यताम...
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत .."

धर्म का सार सुनिये और सुनकर धारण कीजिये। वह यह कि, जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।

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अन्न ग्रहण करने से पहले
विचार मन मे करना है
किस हेतु से इस शरीर का
पालन पोषण करना है

हे परमेश्वर एक प्रार्थना
नित्य तुम्हारे चरणो में
लग जाये तन मन धन मेरा
मातृभूमि की सेवा में ॥

जय श्री राम

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सुप्रभातम्।
प्रियवाक्यम् प्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मातदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता।

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उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति,
कार्याणि न मनोरथै।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य,
प्रविशन्ति मृगाः॥

प्रयत्न करने से ही कार्य पूर्ण होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं, सोते हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं।

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कोयल का सो देत है, कागा का सो लेत।
तुलसी मीठे बचन ते , जग अपना कर लेत।

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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌  ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है

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शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने हितोपदेश

हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, हर एक हाथी में गंडस्थल में मोती नहीं होते साधु सर्वत्र नहीं होतेहोते , हर एक वनमें चंदन नहीं होता । उसी प्रकार दुनिया में भली चीजें प्रचुर मात्रा में सभी जगह नहीं मिलती ।

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बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः |
श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः ||

अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है |

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हिन्दव: सोदराः सर्वे,
न हिन्दू: पतितो भवेत् ।
मम दीक्षा हिन्दू रक्षा,
मम मंत्र समानता ।।

भावार्थ
सब हिन्दू भाई हैं कोई भी हिन्दू पतित नही है
हिंदुओं की रक्षा मेरी दीक्षा है समानता ही मेरा मन्त्र है।

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( अर्जुन उवाच )

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ||

अर्थात् : ( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव का तथा बलवान् और दृढ़ है ; उसका निग्रह ( वश में करना ) मैं वायु के समान अति दुष्कर मानता हूँ |

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(श्री भगवानुवाच )

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् |
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते ||

अर्थात् : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है लेकिन हे कुंतीपुत्र ! उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है |

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एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु ।
तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मॄतम् ॥


जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते है

सर्वं परवशं दु:खं सर्वम् आत्मवशं सुखम् ।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदु:खयो: ॥

जो चीजें अपने अधिकार में नही है वह सब दु:ख है तथा जो चीज अपने अधिकार में है वह सब सुख है ।
संक्षेप में सुख और दु:ख के यह लक्षण है ।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥

आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? य्दि ज्ञान नही तो धन नही मिलेगा ।
यदि धन नही है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नही तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा ऋ

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तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर |
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ||

अर्थ : गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं |सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार साँप का है |

Thursday, August 11, 2016

श्रीकृष्ण भगवान द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ
सिंहासन पर विराजमान थे,
निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे।
तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था।
बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा कि,
"हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं?"
द्वारकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का अभिमान हो गया है।
तभी गरुड़ ने कहा कि, "भगवान! क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है?
इधर सुदर्शन चक्र से भी रहा नहीं गया और वह भी कह उठे कि,
"भगवान! मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है?"
भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को, 'अहंकार', हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है।
ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड़ से कहा कि,
"हे गरुड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"
गरुड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए।
इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि,
"देवी! आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं"
और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया।
मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि,
"तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो। और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे।"
भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए।
गरुड़ ने हनुमान के पास पहुंच कर कहा कि,
"हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप मेरे साथ चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा।"
हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड़ से कहा,
"आप चलिए, मैं आता हूं।"
गरुड़ ने सोचा, "पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मैं भगवान के पास चलता हूं।" यह सोचकर गरुड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े।
पर यह क्या, महल में पहुंचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया।
तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा कि,
"पवन पुत्र! तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं?"
हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया।
हनुमान ने कहा कि,
"प्रभु! आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था, इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें।"
भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे।
हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया,
"हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर
किस दासी को इतना सम्मान दे दिया
कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है।"
अब रानी सत्यभामा के अहंकार भंग होने की बारी थी।
उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था।
रानी सत्यभामा,
सुदर्शन चक्र व
गरुड़,
तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था।
वे भगवान की लीला समझ रहे थे।
तीनों की आंख से आंसू बहने लगे
और वे भगवान के चरणों में झुक गए।